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शिक्षा का क्रमिक विकास एवं अक्षुण्ण विकास हेतु शिक्षा

लेखिका - साधना शर्मा

आदि काल से अभी तक हुए शिक्षा के क्रमिक विकास पर अपने इस लेख के माध्यम से प्रकाश डालने का प्रयास कर रही है लेखिका साधना शर्मा जी, जो वर्तमान मे नहटौर जिला बिजनौर के सॉई मिलेनियम सीनियर सेकेन्डरी स्कूल मे उप प्रधानाचार्या के पद पर कार्यरत है तथा पूर्व मे भी अनेको स्कूलो मे अपनी सेवाये दे चुकी है। 


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 मानव जीवन के निरन्तर विकास के क्रम मे शिक्षा का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। निः सन्देह यह मनुष्य ही है जिसने शिक्षा को विभिन्न रूप दिये, उसे विविध आयामों से सजाया - सँवारा तथा विकसित किया तथापि शिक्षा का यह क्रम स्वयं मानव विकास को बड़ी सीमा तक प्रभावित करता रहा है और करता रहेगा। स्वयं मानव के ही प्रयासों और उनके परिणाम शिक्षा के विविध रूप हैं, किन्तु प्राप्त शिक्षा कभी और कदापि उसके लिये पर्याप्त नहीं हो सकती क्योंकि अभी न जाने कितने अनजान, अपरिचित क्षेत्र है जिनसें वह अभी तक सम्बन्ध स्थापित कर पाने में सफल नहीं हो पाया है। आवश्यक है कि पुरातन ज्ञान और अभी तक प्राप्त उपलब्धियों के साथ - साथ वह नवीन आयामों के लिये अपने शोध कार्य को निरन्तर गति प्रदान करते हुए प्रयत्नशील बना रहे तथा शिक्षा का एक ऐसा प्रारूप तैयार करने में सफल हो जो उसके विकास को अक्षुण्ण बनाये रखने में सफल सिद्व हो।
वस्तुतः शिक्षा वही सार्थक है जो मानव जीवन के किसी भी पहलू को अनछुए न रहे। उसके आध्यात्मिक, सामाजिक, मानसिक यहॉ तक कि भावनात्मक और व्यक्तिगत क्षेत्र तक भी शिक्षा की पहुॅच अनिवार्य है। केवल यही वह स्थिति है जब एक आदमी का मनुष्यता की श्रेणी तक पहुॅच पाना सम्भव हो सकता है। मानवीय जीवन में शिक्षा ही वह प्रावधान है जो उसके व्यक्तित्व को पूर्ण गरिमा प्रदान कर उसमें निखार ला पाने मंे समर्थ है अतः शिक्षा को उस स्तर तक ले जायें जाने का प्रयास किया जाना अत्यन्त आवश्यक ही नही बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति का कर्तव्य हो जाता है जो मनुष्यता को सदैव प्राथमिकता देते हुए उसे लक्ष्य प्राप्ति की प्रेरणा प्रदान करता रहे।
सृष्टि की संरचना के आदि काल से आज तक मानव विकास का क्रम निरन्तर प्रवाहमान है तथा यह भी सत्य है कि अनवरत चलने वाला यह सिलसिला पल - पल परिवर्तन की मॉग करती हुई मानवीय जीवन शैली मे कभी स्थिर नही हो पायेगा।
इस जीवन सागर की अनंत अथाह गहराई में आदि काल से अब तक असंख्य इतिहास समाहित है। कुछ मोती चुनने के प्रयास मे मेरे हाथों ने क्या पाया है, आज उनकी माला पिरोने का प्रयास कर रही हूँ। मानव, ईश्वर की रचना का वह अंश जो अपनी रचना काल के प्रारम्भ से निरन्तर अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण इस विशाल सृष्टि के प्रत्येक रहस्य, प्रत्येक चमत्कार को जानने, समझने एवं उसकी अन्तिम सतह तक को छू लेने की जिद पर अड़ा रहा है। कदाचित यह उसकी हठ ही है जिसने बड़ी से बड़ी चुनौती को स्वीकार करते हुए अपने विकास के क्रम को निरन्तर प्रगतिशील बनाया है और यही वह श्रंखला है जिसने शिक्षा के स्तर को सोपान दिये हैं। मनुष्य के द्वारा अर्जित उपलब्धियाँ, उसके द्वारा विकसित सभ्यता एवं संस्कृति, उसके विविध दृष्टिकोण ही शिक्षा के विविध स्रोत हैं जो मनुष्य के स्वाभाविक विकास के साथ - साथ विकसित होते जाते है एवं शिक्षा के स्तर को और अधिक सम्द्व बनाने मे सक्षम सिद्व होते हैं और आज बदलते परिवेश मंे यह अति अनिवार्य है कि हमारी शैक्षणिक व्यवस्था का एक ऐसा प्रारूप तैयार किया जा सके जो न केवल वर्तमान परिवेश मे हमारे ज्ञान, कौशल एवं अभिरूचियांे के अनुकूल हो वरन भविष्य मे भी हमारी शैक्षिक परम्परा मे अपने मूल्यों को पूर्ण रूपेण सार्थक सिद्व कर सके एवं निर्धारित सिद्वान्तांे को फलीभूत कर सके।
निः सन्देह इस जाग्रत विश्व की एक इकाई के रूप में जब मानव ने अपने नेत्र खोले होंगे तो निश्चय ही वह एक चकित, भ्रमित पशु की भाँति अपने पर्यावरण को निहारता रहा होगा और निश्चय ही यह उसके चारों ओर फैला प्रकृति का आँचल ही था जिसने उसकी जिज्ञासा को हवा देकर उसके विवेक की चिंगारी को शनैः शनैः ज्वलन्त कर दिया होगा और उसी का परिणाम है कि आज अपने इसी प्राप्त ज्ञान के आधार पर वह न जाने कितनी बार न केवल प्रकृति अपितु परमात्मा को भी चुनौती देने की धृष्टता कर बैठता है, जबकि यह प्रकृति उसकी सहचरी है जो निरन्तर न केवल उसके अस्तित्व को सुरक्षा देती रही है बल्कि उसके ज्ञान की वृद्वि कर उसे जागरूक बनाने की चेष्टा करती रही है ष्कि वह सृष्टिकर्ता की श्रेष्ठ रचना हैष् और इसीलिये उसको पूर्णतः यह अधिकार प्राप्त है कि वह प्रकृति के रहस्य से पर्दा हटाकर विभिन्न प्रकार के ज्ञान से परिचित हो और स्वयं के लिये विकास के मार्ग को प्रशस्त करता चला जाए। ज़रा सोचिये कैसा अद्भुत होगा वह क्षण, जब भयंकर उमड़ते तूफान से घबराए, सर्दी से कँपकँपाते, झुंझलाहट से, खीझ से भरे आदि मानव ने क्रोध और उत्तेजना से भर दो पत्थरांे को रगड़ डाला होगा और उसी गुफा मे नीचे पड़े सूखे पत्तों मे वो स्वर्मिण अग्नि प्रज्जवलित हो उठी होगी जिसकी उष्मा ने उसे न केवल तात्कालिक सुख प्रदान किया बल्कि उसके सम्मुख विकास के न जाने कितने मार्ग खोलकर उसे स्वाद, गर्मी, आविष्कार और नित्य नवीन शोध का गरिमामय गौरव प्रदान कर डाला, और वही प्रकृति आज भी अपने अंतर्मन में न जाने कितने रहस्य छिपाए उद्बोधन कर रही है। मानव की इसी जिज्ञासा का आज भी वह हमें बहुत कुछ सिखाने के लिये तत्पर है तो क्यांे न हम अपने शिशुओं को केवल किताबों के अक्षर ही न रटातें रहें बल्कि उन्हें प्रेरित करें कि वे सूरज की, लाल - हरी पत्तियों की, फूलों की, पक्षियों के कलरव की और हवाओं की भाषा को भी अनुभव करें तथा उनसे कुछ ऐसा जानने का प्रयास करें जो नित्य नवीन है, अदभुत है, अनोखा और अनश्वर है।
इसी प्रकार नित्य नये - नये अनुभव के आधार पर मानव ने स्वयं को आकाश की ऊँचाइयों तक और समुद्र की गहराइयोेें तक पहँुचाया। यहाँ यह जान लेना अनिवार्य है कि यदि आवश्कयता आविष्कार की जननी है तो मानव का अनुभव उसके जनक के समान है जो उसके विचारों, उसकी कल्पनाओं को भरपूर पोषण प्रदान करता है। यह व्यक्तिगत अनुभव ही था जिसने उबलते पानी से उठती भाप की शक्ति को माप लिया और इंजन का आविष्कार हुआ। व्यक्ति स्वयं के अनुभव से कितना महत्वपूर्ण प्राप्त कर सकता है इसके असंख्य उदाहरणों से इतिहास आकंठ भरा पड़ा है। आवश्यकता है मात्र एक नयी दृष्टि से आकलन कर पाने की, परम्परागत लीक से हटकर कुछ नवीन सोच पाने की क्षमता, मानव के ज्ञान को न केवल समृद्व बनाती है बल्कि इन्ही व्यक्तिगत अनुभवांे के आधार पर वह विश्व को नयी दिशाएॅ दिखा पाने मे सफल हो पाता है। यही कारण है कि यदि शिक्षा के क्षेत्र में इस प्रकार के प्रयोंगांे को स्थान प्राप्त हो जिसे छात्र अपने व्यक्तिगत अनुभव से जोड़ कुछ नवीन कर दिखा पाने मंे समर्थ हो सके तो यह न केवल वर्तमान वरन् भविष्य के लिये भी उपयोगी और लाभप्रद होने के साथ ही साथ दीर्घकालिक रूप से शैक्षणिक व्यवस्था को सुढृढ बनाये रखने मंे सफल सिद्व हो सकेगा।
मानव के विकास की इस यात्रा का मूल्यांकन भी उतना ही अनिवार्य है जितना इस क्रम के प्रति उसकी चेतना का भाव जरूरी है। विकास के इस क्रम मंे यह ध्यान रखना आज के परिवेश में परमावश्यक हो गया है कि विकास की इस होड़ मंे, कही हम उस दिशा की ओर तो नही जा रहे है जो ध्वंस को आमन्त्रण देती है क्योंकि ज्ञान उसी सीमा तक उपयोगी सि़द्व हो पाता है जब तक वह विवेक से सम्बद्व है। शिक्षित बनाने के क्रम में यदि बालक की प्रकृति प्रदत्त प्रतिभाओं एवं उसकी अभिरूचियों को ध्यान मंे न रखा जायें तो कभी - कभी परिणाम निराशापूर्ण ही नही वरन घातक भी सिद्व हो सकते है। अतः अनिवार्य है कि उसकी व्यक्तिगत अभिरूचियों एवं नैसर्गिक प्रतिभा के अनुसार ही उसके लिये मार्ग निर्देशित किया जाए तथा समय के साथ होने वाले आवश्यक परिवर्तनों को स्वीकार करने तथा अपनी प्रतिभाओं से उन्हें जोड़कर आगे बढने के अवसर प्रदान किये जायें। स्मार्ट क्लासेज, मोबाइल, इन्टरनेट को सही रूप में अपने लिये उपयोगी स्तर तक ले जाये जाने के अर्थ मे उन्हंे प्रशिक्षित किया जाये। प्रायः देखने मंे यह आता है कि उसके भविष्य को दिशा देने के लिये निर्धारित मार्ग उसके माता - पिता अथवा अभिभावक की महत्वाकाँक्षा का परिणाम होता है जिस पर आगे बढने की चेष्टा में या तो बालक अपनी महत्वाकाँक्षा को पहचान ही नही पाता अथवा अन्य किसी की अपेक्षाओं की पूर्ति के प्रयास में उसकी अपनी महत्वाकाँक्षा दम तोड़ बैठती है। अतः अनिवार्य है कि अल्पायु से ही बालक की शारीरिक, मानसिक एवं प्रकृति प्रदत्त प्रतिभाओं का आकलन करते हुए विशिष्ट विषयों के प्रति ही उसका मार्ग निर्देशन किया जाये ताकि विकास के इस क्रम मे उसकी प्रतिभा ज्ञान व बुद्वि का उपयोग न केवल उसके वरन समाज के एक बडे़ वर्ग के लिये भविष्य में उपयोगी सिद्व होकर शैक्षिक व्यवस्था को सुढृढ बना सके।
बालक जब अपने सुरक्षित घर से अकेला कुछ समय दूर रहने के लिये पॉव बाहर निकालता है तो वह एक मात्र स्थान है, वह विद्यालय जिसे अपना बनाने के लिये उसे वहॉ भेजा जाता है। यह स्थान निश्चय ही उतना ही सुरक्षित होना चाहिये जैसा उसका अपना घर है, जहॉ उसे किसी प्रकार का भय नही, जहाँ वह निर्भय है, बंधन होते हुए भी स्वतन्त्र है, स्वच्छंद है, किन्तु अनुशासित। माता - पिता अभिभावक किसी के लिये चिन्ता का कोई विषय नहीं क्योंकि वह उन्ही जैसे हाथों मंे ठीक उसी प्रकार सुरक्षित है जैसा घर पर उनके साथ रहते हुए, लेकिन आज इतना कुछ इस स्थिति के विपरीत दिखाई दे रहा है कि परिजन शंकाकुल हो उठे हैं। यह स्थिति एक ऐसा भयावह संकेत है जो विद्यालयो के प्रति निष्ठा भाव को बुरी तरह क्षत - विक्षत कर सकती है। इस स्थिति से हमारी शिक्षा प्रणाली प्रभावित हो इसके लिये अति अनिवार्य है कि तात्कालिक रूप से इसका समाधान खोजा जाए। प्राचीन काल मंे ष्गुरूकुल प्रणालीष् में सामान्य जन, मध्यम वर्ग, एवं राज परिवार तक के बालक विद्याध्ययन काल में दीर्घ अवधि तक गुरू एवं गुरूमाता के संरक्षण में ही अपनी आयु का एक बड़ा भाग व्यतीत कर देते थे और उनके परिवारो को उनकी लेश मात्र भी चिन्ता न होती थी जबकि उस काल में सुविधाओं का नितांत अभाव था। क्या कारण है कि आज समस्त आधुनिक सुविधाओं से युक्त में विद्यालयों  भी अपने बालक को भेजते हुए परिजन इनते निःशक नहीं है। वाहय दुर्घटनाओं एवं आशंकाओं की बात तो एक ओर विद्यालय के भीतर ही होने वाली कुछ ऐसी लोमहर्षक घटनायें है जो विवश कर देती है कि हमें अपने विद्यालयों को केवल साजो - सामान से आपूरित कर देना ही काफी नही है वरन वहॉ के वातावरण, शिक्षक एवं कर्मचारीगण के साथ - साथ विद्यार्थियों की मानसिकता को भी इतना संवेदनशील, इतना विस्तृत बनाना होगा कि समाज का खोया हुआ विश्वास पुनः जागृत हो सके तथा घर और विद्यालय की समरसता का पुनसर््थापन हो और विद्यालयों की गरिमा अक्षुण्ण रह सकें।
शिक्षा का वास्तविक उददेश्य मनुष्य का सर्वांगीण विकास है। वस्तुतः शिक्षित व्यक्ति वही है जो प्राप्त की गयी शिक्षा से मात्र धनार्जन की अपेक्षा नही करता बल्कि उस शिक्षा को आत्मसात कर पूर्णतः उसे अपने आचरण का अंग बना लेता है और वह शिक्षा उसकी चाल - ढाल, रख - रखाव, बोलने के ढंग भाषा यहाँ तक कि उसके उस हास - परिहास से भी परिलक्षित होती है। यह शिक्षा उसके व्यक्तित्व को एक इस प्रकार का सम्पूर्ण आयाम प्रदान करती है कि उससे मिलने वाले किसी भी व्यक्ति पर अपनी अमिट छाप छोड़ती है और लोग उसका अनुकरण करने का भरपूर प्रयास करने लगते हैं। यह सत्य है कि किसी भी व्यक्ति को किसी एक विषय में अधिक रूचि हो सकती है किन्तु इसमें भी सन्देह नहीं कि व्यक्ति मे विविध रूप से अनेक मौलिक प्रतिभाएँ छिपी रहती हैंं। एक व्यक्ति यदि बहुत अच्छा गायक है तो उसके भीतर अभिनय की क्षमता भी हो सकती है जिससे कदाचित उसका स्वयं का भी पूर्ण परिचय न हो तो निश्चय ही शिक्षा के विविध क्षेत्र जैसे खेल-कूद, वाद - विवाद, अर्थात पाठयक्रम सहगामीं गतिविधियाँ उसको स्वयं को पहचानने और तराशनें मे बड़ी सीमा तक सहायक सिद्व हो पाती है और उसके व्यक्तित्व को गरिमा प्रदान करती हैं अतः इन्हे प्रचुर मात्रा में प्रोत्साहन देकर व्यक्ति की मौलिक प्रतिभाओं को मुखर कर पाने मे सहयोग दिया जाना चाहिए।
इसके लिये अनिवार्य है कि स्वयं शिक्षकगण इन्हें पाठयक्रम का अंग स्वीकार कर छात्रों को प्रोत्साहित करने के साथ - साथ स्वयं अपनी अभिरूचियों को भी समृद्व बनाऐं तथा इस तथ्य का विशेष रूप से ध्यान रखें कि कोई भी बालक पूर्णतः
शून्य नहीं हो सकता। यदि किसी एक क्षेत्र में उसकी ओर से सकारात्मक विचार उभर कर नही आ रहा है तो निश्चय ही किसी दूसरी विधा में अन्य किसी की अपेक्षा वह श्रेष्ठ अथवा सर्वश्रेष्ठ भी पाया जा सकता है इसीलिये उसका सम्पूर्ण आकलन उसके पठन - पाठन, लेखन कौशल, वाक पटुता के साथ - साथ दूसरों के प्रति उसके व्यवहार, विद्यालय के प्रति उसके दृष्टिकोण को ध्यान मे रखते हुए ही किया जाना चाहिए।
मानव के जीवन मे शिक्षा का योगदान केवल इतना ही नही कि वह उसे पुस्तकीय ज्ञान प्रदान कर अन्य लोगों से भिन्न बना सके वरन यह शिक्षा ही है जो उसे एक सामान्य आदमी से मनुष्यता की सीमा तक पहुॅचाने का मार्ग दिखाती है। उसे उसके नैतिक मूल्यों का बोध करा यह सोचने के लिये विवश कर देती है कि उसके लिये क्या करणीय है और क्या अकरणीय। क्या विचारणीय है और क्या अविचारणीय। उसकी बु़िद्व को विवके से जोड़कर सम्पूर्ण समाज के प्रति सद्भावना के भाव से आपूरित करती है। किन्तु यह क्या, कि नित्य आधुनिक रूप से अति आधुनिक होते जाते इस विश्व मे स्पर्धा, ईर्ष्या, क्रोध व उन्माद की मात्रा इस प्रकार बढती जाती है कि यह विचार उठने लगता है कि शिक्षा तो इस प्रकार का नकारात्मक प्रभाव कदापि नहीं छोड़ सकती, फिर क्या है जो व्यक्ति को आतंकवाद, नस्लवाद, जातिवाद और धर्म से जोड़ ष्सीरियाष् जैसे हालात पैदा करता है अथवा सम्पूर्ण विश्व में नरसंहार का भयानक खेल प्रदर्शित करने के लिये पशुता एवं निर्ममता की समस्त सीमाओं का उल्लंघन कर बैठता है। इस स्थिति को देखकर क्या ऐसा नही लगता कि हम शिक्षा के वास्तविक उददेश्य को ग्रहण कर पाने मंे कही न कहीं चूक जरूर गये हैं अथवा हमारे व्यक्तिगत स्वार्थांे ने, भीतर छिपी पशुता ने अपनी ही शिक्षा को लज्जित कर डाला है क्योंकि इन सब पशुताओं के पीछे कुछ अनपढ़, अशिक्षित लोग नहीं बल्कि पूर्ण सुशिक्षित और परिपक्व दिमाग अपना कार्य कर रहे हैं। यह सत्य है कि मानव मन की सभी दूषित प्रवृत्तियों को शिक्षा द्वारा पूर्ण रूपेण बाहर निकालकर फेंक दिया जा सके, यह सम्भव नही तथापि इसमें कोई सन्देह नहीं कि नैतिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा इन दुर्गुणों का परिष्कार करने में काफी सीमा तक फलदायी सिद्व हो सकती है। अतः निरन्तर व्यवसायीकरण एवं तकनीक से बोझिल और मशीनी होती जाती अपनी शैक्षिक व्यवस्था को उन नैतिक मूल्यों से संबद्व बनाये रखना मनुष्य के भाव - पक्ष को जीवन देना होगा। वैश्वीकरण के इस काल में ष्वसुधैव कुटुम्बकम्ष् की चेतना को जाग्रत रखना शिक्षा का उददेश्य हो इसके पूर्ण प्रयास करने होगंे ताकि मानवता का अस्तित्व शेष रह सके।
मानव यद्यपि इस विशाल सृष्टि की इकाई मात्र है तथापि प्रत्येक मनुष्य वैयक्तिक स्तर पर कदापि किसी दूसरे के समान नही हो सकता। शारीरिक संरचना के अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति का मानसिक स्तर, उसकी विचारधारा, रूचि, धर्म, दृष्टिकोण भिन्न है किन्तु यह सत्य वह भली प्रकार समझता है कि सभी विभिन्नताओं के बावजूद मानव का एकजुट होकर रहना ही उसके अस्तित्व की सुरक्षा का आधार है और यही अनिवार्यता उसके वैचारिक मतभेदों के बावजूद उस पर लगा हुआ एक ऐसा अंकुश है जो उसके अहंकार पर अंकुश लगाये रखता है तथापि इस सत्य को भी नकारा नही जा सकता कि विचारों की इसी विविधता के कारण मानव ने जड़ता को तोड़कर विकास के विविध मार्ग खोज निकाले हैं। अपनी इसी वैचारिक विभिन्नता के बल पर उसने सदियों से चली आ रही परम्पराओं को तोड़ा है। इसी भिन्नता ने उसे बताया कि पृथ्वी गोल है, इसी ने समझाया कि यह सूर्य नहीं जो पृथ्वी के चारों ओर घूमता है बल्कि धरती ही है जो उसके चारों ओर चक्कर काटा करती है और यही विविधता थी जिसने उसे नवीन आयाम प्रदान किये। अतः प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति का दायित्व हो जाता है कि वह स्वयं अपने विचारों का आकलन करने के साथ - साथ, अपनी सोच, अपने दृष्टिकोण को दूसरों से सँाझा करे तथा स्वयं को परखे जाने का अवसर प्रदान कर निरन्तर अपने ज्ञान मंे वृद्वि करता रहे। अपनी वैचारिक क्षमता को बढाने का प्रयास करते रहने से विकास की गतिशीलता को बल मिलता रहेगा और आवश्यक परिवर्तन समाज को नवीन दिशा प्रदान करने में सफल रहेंगे।
सत्य के अनेक रूप है, यह अनिवार्य नही कि एक व्यक्ति का सत्य सम्पूर्ण समाज अथवा विश्व का सत्य हो सके अतः शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति की सोच बहुत वैज्ञानिक होनी चाहिये। केवल मिथकों अथवा कपोल - कल्पनाओं पर निर्भर रहने वाले समाज का अस्तित्व कितने समय तक संभव हो सकता है यह सोच पाना कठिन नहीं है अतः शिक्षक वर्ग को सदैव अपनी विचारधारा को प्रामाणिक तथ्यों से जोडे़ रखना अनिवार्य हो जाता है, जिनका परिणाम संदिग्ध हो ही नहीं सकता। इसके अतिरिक्त यह मनुष्य की जिज्ञासा ही है जो उसे चैन नहीं लेने देती और उसे कुछ नवीन कर दिखाने की प्रेरणा देती रहती है जबकि प्रत्येक मनुष्य के अंदर यह पर्याप्त मात्रा मंे हो ऐसा कतई अनिवार्य नहीं। समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो दूसरों के सत्य को ही अपना सत्य मानकर जीवन के सँाध्यकाल मंे प्रविष्ट हो अंत को प्राप्त हो जाता है किंतु किसी भी जिज्ञासु को अपनी इस क्षुधा को शांत नही होने देना चाहिये तथा अपने अंतस में जन्म लेते प्रश्नों के समाधान एवं शोध कार्य मे सतत् आगे बढ़ते हुए प्रकाश का मार्ग प्रशस्त कर शिक्षा के क्षेत्र को गतिमान रखना चाहिये।
जीवन यद्यपि संघर्ष के अभाव मे कल्पित ही नही किया जा सकता तथापि प्रत्येेक जीवन शांति और सुख की कामना में, अपने लोगो के मध्य शांति व प्रेम के साथ जीवन यापन की इच्छा रखता है जबकि विडम्बना यह है कि चारों ओर मारा - मारी और हा-हाकार है जो समाप्त होने का नाम ही नही लेता। क्या कारण है कि सुख - शांति और प्रेम का भाव मन मे लिये घूमने वाला मानव अपना जीवन लड़ते - झगड़ते, ईर्ष्या से जलते, अवसाद से ग्रस्त होकर अंत को प्राप्त हो जाता है। मुझे लगता है कि शिक्षा का प्रारूप कुछ ऐसा हो कि संपूर्ण विश्व मे व्याप्त लहुलुहान मानवता को चैन मिल सके। मनुष्य कुछ इस प्रकार शिक्षित हो कि उसका क्रोध, स्वार्थ, दंभ, ईर्ष्या, वैमनस्य इस प्रकार दमित हो जायें कि वह अमूल्य निधि, वह सुख जिसका वह पूर्ण अधिकारी है उसे वह प्राप्त कर सके। यह मनुष्य ही था जिसने साथ मिलकर रहने के कारण ही समाज की परिकल्पना की थी और अपने उसी समाज को सुन्दर और स्वस्थ बनाये रखने के लिये अपने अंतर्मन में त्याग और समर्पण की भावना को जगाया था। अपने आस - पास के लोगो की खुशी में अपनी प्रसन्नता को खोज अकल्पनीय सुख का अनुभव किया था। उस गुरूकुल से विहीन, स्कूल, कॉलेज, पुस्तकांे से रहित समाज मंे किसने उसे सिखाया होगा कि यदि साथ रहना है तो हमें अपने क्षुद्र स्वार्थो से ऊपर उठना होगा और यदि उस काल मंे यह संभव था तो आज कठिन क्यों है! क्यों न हम आज अपनी शिक्षा को इस प्रकार संस्कारित एवं नैतिकता पर आधारित बनाने का प्रयास करें जो मनुष्य को स्वस्थ मानसिकता एवं स्वानुशासित बनाने मंे सक्षम हो और वह ष्जियो और जीने दोष् के सिद्वांत में विश्वास रख जीवन के सच्चे सुख के अर्थ को समझ मानव जीवन के उददेश्य को पूर्ण कर पाने मंे सफल रहे।
और निश्चय ही यह उसी स्थिति में सम्भव हो सकता है जब विश्व का प्रत्येक प्राणी स्वयं इस बात के लिये प्रतिबद्व हो कि वह अपने कर्तव्य का पालन पूर्ण निष्ठा और लगन से करे। कार्य छोटा हो या बड़ा उसका महत्व सदैव बड़ा ही होता है अतः उसे करने के लिये पूर्ण एकाग्रता, सक्रियता, चैतन्यता एवं पुरूषार्थ निहित कर सुंदरतम, श्रेष्ठतम बना देना ही महान कर्त्तव्य माना जाना चाहिये। यदि सच्चे अर्थ मंे शिक्षा मनुष्य को सुशिक्षित बनाने में अपना योगदान दे सके तो निश्चय ही विकास की यह गति निर्बाध एवं निर्द्वंद गतिमान रहेगी।


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