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सोमवार, सितंबर 10, 2018

गढमुक्तेश्वर - पावन तीर्थ की पौराणिक कथा, जानिये इस तीर्थ स्थल से जुड़े कुछ ऐसे महत्वपूर्ण तथ्य जो छिपे है शास्त्रो मे

रिपोर्ट -  बृजघाट/हसनपुर से तहसील प्रभारी घनश्याम शर्मा।
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इस लेख के माध्यम से तीर्थ नगरी गढमुक्तेश्वर के इतिहास पर नजर डाल रहे है हसनपुर जिला अमरोहा के तहसील प्रभारी घनश्याम शर्मा। इस तीर्थ के इतिहास को खोजने हेतु इन्होने काफी अध्ययन व मनन किया तथा साथ ही तीर्थ स्थल से लम्बे समय से जुड़े अनेको व्यक्तियो से बातचीत कर जानकारी हासिल की। इस लेख के माध्यम से पाठको तक इसी जानकारी को पहुॅचाने का प्रयास कर रहे है न्यूज इन्डिया 17, हिन्दी न्यूज बेव चैनल/पोर्टल के हसनपुर जिला अमरोहा तहसील प्रभारी घनश्याम शर्मा।

गढमुक्तेश्वर एक प्राचीन तीर्थ स्थल जो जनपद हापुड़ के अन्तिम छोर पर स्थित है। यह लखनऊ - दिल्ली राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है। गढमुक्तेश्वर तीर्थ का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थो मे भी मिलता है। यह हिन्दूओ का एक प्रमुख तीर्थ स्थल है। इस पावन स्थल पर भगवान श्रीराम के पूर्वज शिवी ने अपना चतुर्थ आश्रम जिसे वानप्रस्थ कहा जाता है व्यतीत किया था। शिवी ने ही परशुराम के माध्यम से यहॉ शिव मन्दिर की स्थापना करायी। जिस समय इस मन्दिर की स्थापना करायी गयी उस समय यह स्थान खान्डवी वन के नाम से जाना जाता था। शिव मन्दिर की स्थापना व वल्लभ सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र होने के कारण इस स्थान का नाम कालान्तर मे शिव वल्लभपुर पड़ा जिसका उल्लेख शिव पुराण मे मिलता है। विष्णु देव के गण जय एवं विजय नारद मुनि के श्राप से ग्रस्त हो मृत्यु लोक आये और उन्होने अपनी मुक्ति हेतु अनेको तीर्थो की यात्रा की लेकिन शान्ति नही मिल सकी। श्राप से ग्रसित गण अन्त मे शिव वल्लभपुर आये और यहॉ भगवान शिव की उपासना की। जय और विजय की उपासना से प्रसन्न हो भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिये। भगवान शिव के दर्शन के उपरान्त गणो को मुक्ति प्राप्त हुई। इसी कारण शिव वल्लभपुर से बदलकर इस स्थान का नाम गण मुक्तिश्वर हुआ जो समय के साथ गढमुक्तेश्वर हो गया।
महाभारत काल मे भी यह नगर जल मार्ग की सुलभता के कारण व्यापार का बड़ा केन्द्र रहा। हस्तिनापुर राज्य की राजधानी का एक भाग उत्तर दिशा की ओर पुष्पावती था। यह स्थान आज भी पुठ के नाम से जाना जाता है। यह एक मनमोहक उघान के रूप मे था तथा हस्तिनापुर के शासको की सैरगाह रहा। महाभारत काल मे द्रौपदी अपना मन बहलाने के लिये इस स्थान पर आया करती थी। हस्तिनापुर से 35 किलोमीटर दूर खान्डवी वन जाने के लिये एक गुप्त मार्ग था। जिसके चिन्ह कुछ वर्षो पहले तक मौजूद थे।
इस तीर्थ स्थान पर कार्तिक मास मे एक भव्य मेला आयोजित किया जाता है। यह मेला भी प्राचीन मेलो मे गिना जाता है एवं इसके प्रारम्भ होने का इतिहास भी लगभग 5 हजार वर्ष पुराना है। महाभारत के महा विनाशकारी संग्राम के बाद युधिष्ठिर व कृष्ण के मन मे भारी ग्लानि पैदा हुई। इसमे मारे गये असंख्य कुटुम्बियो, स्वजनो तथा निर्दोष सैनिको की आत्मा को किस प्रकार शान्ति मिले इस पर विस्तृत चर्चा की गयी। वेदो व उपनिषदो को गहन अध्धयन किया गया। श्री कृष्ण की अध्यक्षता मे सभी तत्कालीन ज्ञानियो ने यह निर्णय लिया कि खान्डवी वन जहॉ परशुराम ने शिव मन्दिर स्थापित किया था एवं शिव वल्लभ पुर कहलाया था वहॉ भगवान शिव की आराधना कर, यज्ञ कर एवं पवित्र गंगा मे स्नान कर यदि पिन्ड दान किया जाये तो सभी संस्कार पूर्ण हो जायेंगे। इस निर्णय का सभी ने स्वागत किया एवं शुभ महुर्त निकाल कार्तिक मास की अष्टमी तिथि को गौ पूजन कर पावन गंगा नदी मे स्नान किया एवं पूर्वजो की आत्मिक शान्ति हेतु धार्मिक संस्कार व पिन्ड दान किया। यही देवात्थान एकादशी कहलाई। एकादशी से चतुर्दशी तक मृत आत्माओ की शान्ति हेतु यज्ञ किया गया एवं चतुर्दशी को संध्या उपरान्त स्वर्गीय आत्माओ को दीपदान कर श्रदॉजलि दी गयी। अगले दिन पूर्णिमा को स्नान कर पूजा अर्चना की गयी। इस प्रकार एक सप्ताह तक यह धार्मिक अनुष्ठान चलते रहे। अनुष्ठानो के सम्पन्न होने पर सभी ने सन्तोष का अनुभव किया।
परशुराम जी ने गढमुक्तेश्वर क्षेत्र मे 5 स्थानो पर शिवलिंगो की स्थापना की थी। पाठको को यहॉ यह बताना भी उचित होगा कि भगवान शिव परशुराम मे प्रमुख आराध्य देव थे। गढमुक्तेश्वर महादेव नक्का कुॅआ के निकट जंगल मे स्थित है। यह आज झारखन्डेश्वर महादेव के नाम से विख्यात है व एक दर्शनीय स्थल है। एक शिवलिंग कल्याणपुर मे कल्याणेश्वर महादेव के नाम से विख्यात है। दो शिवलिंग लाल मन्दिर व पुरा महादेव बागपत मे स्थित है।
एक समय राजा नहुष को श्राप वश गिरगिट की योनि मे जन्म लेना पड़ा। धर्मराज के कहने पर राजा नहुष यही आकर पाप मुक्त हुए। मुक्तेश्वर महादेव के प्रॉगण मे राजा नहुष ने वाबड़ी का भी निर्माण कराया। इस वाबड़ी मे गंगा का जल आता है। यह वाबड़ी नक्का कुॅआ के नाम से प्रख्यात है। यहॉ लगने वाले परम्परागत मेले का प्रबन्ध तो कार्तिक मास मे लगता है जिला प्रशासन हापुड़ करता है। यह स्थान मेले के समय तम्बूओ की अस्थायी नगरी मे परिवर्तित हो जाता है। इस मेले मे देश के कोने कोने से भक्तो का आगमन होता है तथा पित्रो की आत्म शान्ति हेतु भक्त यहॉ श्राद्व दान आदि करते है। इस विशाल मेले को गधा खच्चर आदि की खरीद फरोख्त के चलते गधेड़ के नाम से भी जाना जाता है।
शास्त्रो मे कार्तिक मास पूर्णिमा का विशेष महत्व बताया गया है। शिव भक्तो मे पूर्णिमा का महत्व इसलिये भी है क्योकि भगवान शिव ने इसी दिन त्रिपुरासुर नामक महाबलशाली दानव का वध किया था।
अपने गौरान्वित इतिहास को समेटे यह नगर आज भी भक्तो के लिये आस्था का केन्द्र बना हुआ है। यहॉ प्रतिवर्ष लाखो की संख्या मे भक्त देश ही नही वरन विदेशो तक से आते है। वर्तमान मे भी यहॉ प्रतिदिन मॉ गंगा की आरती सुबह शाम बड़े स्तर पर आयोजित की जाती है। प्रतिवर्ष महाशिव रात्रि व शिव प्रिय सावन माह मे यहॉ कॉवडि़यो के समूह गंगा जल लेने हेतु उमड़ पड़ते है तथा पावन गंगा जल ले जाकर अपने आराध्य को अर्पित करते है। वर्ष भर यहॉ आने वाले भक्तो का तॉता लगा रहता है तथा कुशल पन्डितो के माध्यम से अनेको धार्मिक संस्कार करायेे जाते है। वर्तमान मे यहॉ आने वाले भक्तो की संख्या को देखते हुए उनके ठहरने व भोजन आदि की व्यवस्था हेतु अनेको धर्मशालाये व होटल यहॉ खुल चुके है।